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आशा (A Radio Program)

(संगीत, हवा की आवाज़)

सूत्रधार:      मैं हवा हूँ, मैं स्वतंत्र हूँ, स्वछंद हूँ, बिना रोक-टोक यहाँ-वहाँ विचरती हूँ, मैं सब देखती हूँ... सुनती हूँ, अनुभव करती हूँ. मैं हवा हूँ जब खेतो की मिटटी की सोंधी खुशबू साथ लेकर, पीपल के पत्तों को छेड़ती, तंग गलियों से होकर गुज़रती हूँ तो सब के मन को हर्षित कर देती हूँ. मैं हवा हूँ, मैं सभ्यतायों को, पनपते, विकसित होते और फिर मिटते देखा है. जाने कितनी कहानियाँ, कितने किस्से मेरे आँचल में छिपे हुए हैं. ऐसी ही एक घटना है गाँव सूरजपुर की. उत्तर भारत में ही बसा ये गाँव सूरजपुर, जो कभी समृद्ध और खुशहाल था, आज नशे की गर्त में डूब चूका है. आईये चलते हैं इस गाँव में जहां रामू और शामू दोनों अपनी साईकिल का टायर का पंचर लगवाने बिस्वा की दूकान पैर आये हैं.

बिस्वा : भैया आप दोनों बैठ जाईये, मैं अभी दो मिनट में पंचर लगा देता हूँ,


शामू : हाँ लगा दो
रामू : भाई शामू मुझे तो लगता है कि... उपर वाले ने हर चीज़ बड़ी ही सोच समझ के बनायीं है.

शामू: और नहीं तो क्या अब देखो न, अगर गाए के थन उपर कि तरफ होते तो बछड़े तो दूध पीने के लिए किसी भी कुर्सी कि ज़रुरत पड़ती और हम भी दूध बाल्टी में नहीं दाल पाते.
रामू: बात तो बिलकुल सही है शामू.
बिस्वा: शामू तुम्हारे सारे उदाहरण ऐसे ही क्यों होते हैं कुछ अजीब से,
शामू: बिस्वा तो ज़बान कि जगह हाथ चला, पंचर जल्दी लगेगा.
बिस्वा : अजी मैं तो बस कह ही रहा था.
रामू : बिस्वा न तो तू बस कह न ट्रक, वरना ये रामू फिर तेरे पीछे पड़ जायेगा...
शामू : मैं पहले कब पड़ा इसके पीछे?
रामू : पड़े तो थे कल... कितना लम्बा भाषण दे डाला बेचारे को
शामू : रामू भाई वो तो मैं इसे समझा रहा था कि ये शराब पीना छोड़ दे, कुछ गलत तो कहा नहीं था मैंने. अब जो भी थोडा बहुत कमाता है अगर वो ऐसे ही शराब में उड़ा देगा तो घर कैसे चलेगा?
बिस्वा: अब इनती भी नहीं पीता जी जितनी दूसरे लोग पीते हैं गाँव के.
रामू: ये बात तो मत बोलो बिस्वा.  परसों मैंने और शामू ने तुम्हें कैसे घर तक पहुँचाया ये हम ही जानते हैं,
बिस्वा: अब कभी कभी तो चलता है, रोज रोज तो इतनी नहीं पीता ना.
शामू: हाँ तुम तो बिलकुल गाए हो 
रामू: जब तक बोतल मु को ना लगे

(हंसते हैं)

बिस्वा : अरे भाई बोतल पीने के बात इतना बुरा भी नहीं हो जाता.
शाम : ये तो दूसरों से पूछो जो तुम्हे घर पहुंचाते हैं रोज़.

(हंसते हैं)

सूत्रधार : गाँव का माहौल हर वक्त इतना खुशनुमा नहीं रहता. ये तो गाँव के माहौल का एक ही पहलू है. इसका दूसरा काला पहलू आरम्भ होता है शाम को. जब ज़मींदार की बनवाई गयी शराब की दूकान पैर सब लोग एकत्र होने लगते हैं. पहले हल्की-फुल्की बातचीत, हंसी ठिठोली, फिर गंभीर बातें, फिर गाली गलौच और फिर हाथ पाई. ये तो यहाँ रोज़ का काम बन गया है....

क्रमश:

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